भारतीय सैन्य इतिहास में ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) का मुद्दा एक ऐसा विषय रहा है जिसने समय के साथ न केवल सैन्यकर्मियों की भावनाओं को प्रभावित किया है बल्कि सरकारी प्रतिबद्धताओं की जाँच भी की है। इस योजना को शुरुआत में भारतीय सेना के पूर्व सैनिकों के प्रति सम्मान और समानता का प्रतीक माना गया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णयों और टिप्पणियों से यह स्पष्ट हुआ है कि यह योजना अब एक ‘कड़वा मजाक’ बन कर रह गई है।
एक दशकों पुरानी समस्या
OROP का मुद्दा 1973 से लेकर 2024 तक, पिछले 51 वर्षों में विभिन्न सरकारों के द्वारा घसीटा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक गंभीर विषय के रूप में उठाया है, जो दर्शाता है कि आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद भी, कोई भी सरकार इसे पूरी तरह से लागू नहीं कर पाई है।
सुप्रीम कोर्ट की फटकार
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को रिटायर्ड नियमित कैप्टनों को OROP के तहत पेंशन भुगतान नहीं करने पर सख्त फटकार लगाई। न्यायाधीश संजीव खन्ना और आर महादेवन की बेंच ने सरकार को 2024 तक का अंतिम समय दिया है ताकि वह इस योजना के अंतर्गत उठाए गए मुद्दों को सुलझा सके।
उद्देश्य और अमल
OROP का उद्देश्य स्पष्ट है – सभी रिटायर्ड सैनिकों को उनके सेवाकाल के अनुसार समान वेतन प्रदान करना। इस योजना को हर पाँच साल पर संशोधित किया जाना चाहिए था, लेकिन अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी के अनुसार, अभी भी कई विसंगतियाँ हैं जिन्हें सुलझाने की आवश्यकता है।
सरकारों का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया है कि चाहे इंदिरा गांधी की सरकार हो या नरेंद्र मोदी की, सत्ता में रहने वाली हर सरकार ने पूर्व सैनिकों की गरिमा के साथ खिलवाड़ किया है। इस बयान से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी प्रतिबद्धता में कमी रही है, जिसके कारण यह मुद्दा इतने वर्षों से अनसुलझा है।
आगे की राह
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता से एक उम्मीद जगी है कि शायद आने वाले समय में इस विषय पर कुछ ठोस कदम उठाए जा सकें। यह न केवल सरकार के लिए बल्कि समाज के लिए भी एक संदेश है कि जो लोग देश की सेवा करते हैं, उन्हें सम्मान के साथ उचित लाभ प्रदान करना चाहिए।